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राम कथा - साक्षात्कार

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 533
आईएसबीएन :81-216-0765-5

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान

दो

 

नींद टूटी तो शूर्पणखा को लगा कि सिर अब भी भारी था, मन पर गहरा अवसाद छाया था। किंतु, इस बोझिल मनःस्थिति में भी उसे मध्य रात्रि की घटना की हल्की-हल्की याद बनी हुई थी...किसी की हल्की-हल्की सुबकियों के स्वर से उसकी नींद उखड़ गयी थी। आंखें थीं कि सारे प्रयत्न के बाद भी खुलना नहीं चाहती थीं, जैसे पलकें परस्पर एक-दूसरे से चिपक गयी हों। सिर इतना भारी था कि उठाए नहीं उठता था। मन खीझ से भरा हुआ था...और थोड़ी-थोड़ी देर में उभरने वाला सुबकियों का स्वर, दुखते हुए सिर की कनपटियों पर हथौड़े के समान बज रहा था।...शूर्पणखा का मन विषाक्त हो उठा। उसने जैसे क्षण-भर रुककर प्रतीक्षा की और अगले ही क्षण, दुर्निवार आवेश ने अभ्यस्त हाथों से टटोलकर कशा उठाया और सुबकियों को दे मारा। सुबकियों के स्वर का गला किसी ने बलात् घोंट दिया।

उसके पश्चात शूर्पणखा को कुछ भी स्मरण नहीं था। पता नहीं उसने अपनी गहरी नींद में कोई स्वप्न देखा था, या सचमुच ही नींद में विघ्न पाकर कशा के आघात से उसे चुप करा दिया था।...उसे लगा, उसके मन में खीझ अब भी शेष थी...खीझ ही नहीं, क्रोध भी। यदि वह स्वप्न नहीं था, तो किसने शूर्पणखा की नींद में विघ्न डालने का दुस्साहस किया था?...या संभव है कि वह स्वप्न ही हो...शूर्पणखा का थका-टूटा मन अधिक सोच-विचार नहीं करना चाहता था।...

उसे उठ गयी देखकर परिचारिका भीतर आयी। ''स्वामिनी!''

शूर्पणखा ने थके मन और उत्साहशून्य आंखों से उसे देखा। यह वज्रा थी, और वज्रा से प्रसाधन करवाना शूर्पणखा को कभी रुचिकर नहीं लगा। ''मणि कहां गयी?''

''स्वामिनी। कल रात वह यहां आपकी सेवा में थी, और पीछे उसके रुग्ण बालक की मृत्यु हो गयी। उसे समाचार मिला तो उसने जाना चाहा, किंतु अंतःपुर की रक्षिकाओं ने उसे जाने नहीं दिया। बाध्य होकर वह यहीं पड़ी रही, किंतु अपनी रुलाई रोक नहीं पायी। उसकीं सुबकियों के स्वर से आपकी निद्रा में बाधा पड़ी तो आपने उसे...'' वज्रा रुक गयी। सूर्पणखा ने उसे रुष्ट दृष्टि से देखा, ''रहस्य क्यों बना रही है? बोलती क्यों नहीं?''

''स्वामिनी। आपने उसे कशा के संकेत से चुप करा दिया।'' वज्रा ने भीत स्वर में कहा।

शूर्पणखा की स्मृति में हल्की-हल्की सुबकियों और कशाघात का दृश्य उभरा, और साथ-हीं-साथ उसकी चिड़चिड़ाहट जाग उठी, ''में पूछ रही हूं मणि कहां है?''

''स्वामिनी। वह अपने बच्चे के शव को देखने गयी है।''

शूर्पणखा की मृकुटियां तन गयी, ''यह अपने बच्चे के शव को देखती रहेगी तो मेरा केश-विन्यास कौन करेगा? मेरे प्रसाधन का क्या होगा?'' वह पलंग से उठी, ''द्वार पर कौन है?''

''स्वामिनी!'' रक्षिका ने भीतर आ अभिवादन किया।

''मणि को उसके आवास पर देखो और कहो कि यदि वह शेष बच्चों का जीवन चाहती है, तो तत्काल चली आए। यदि वह आने में आनाकानी करे, तो वह जिस भी अवस्था में हो, उसी अवस्था में उसे यहां घसीट लाओ तथा उसके परिवार को बंदी कर अंधकूप में डाल दो।''

''त्तो आज्ञा!'' रक्षिका बाहर चली गयी।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ

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